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वन॑स्प॒तेऽव॑ सृजा॒ ररा॑ण॒स्त्मना॑ दे॒वेषु॑। अ॒ग्निर्ह॒व्यꣳ श॑मि॒ता सू॑दयाति ॥२१ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वन॑स्पते। अव॑। सृ॒ज॒। ररा॑णः। त्मना॑। दे॒वेषु॑। अ॒ग्निः। ह॒व्यम्। श॒मि॒ता। सू॒द॒या॒ति॒ ॥२१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:27» मन्त्र:21


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

जिज्ञासु कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वनस्पते) सेवन योग्य शास्त्र के रक्षक जिज्ञासु पुरुष ! जैसे (शमिता) यज्ञसम्बन्धी (अग्निः) अग्नि (हव्यम्) ग्रहण करने योग्य होम के द्रव्यों को (सूदयाति) सूक्ष्म कर वायु में पसारता है, वैसे (त्मना) अपने आत्मा से (देवेषु) दिव्य गुणों के समान विद्वानों में (रराणः) रमण करते हुए ग्रहण करने योग्य पदार्थों को (अव, सृजा) उत्तम प्रकार से बनाओ ॥२१ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे शुद्ध आकाशादि में अग्नि शोभायमान होता है, वैसे विद्वानों में स्थित जिज्ञासु पुरुष सुन्दर प्रकाशित स्वरूपवाला होता है ॥२१ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

जिज्ञासुः कीदृशो भवेदित्याह ॥

अन्वय:

(वनस्पते) वनस्य सम्भजनीयस्य शास्त्रस्य पालक (अव) (सृजा)। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङः [अ०६.३.१३५] इति दीर्घः। (रराणः) रममाणः (त्मना) आत्मना (देवेषु) दिव्यगुणेष्विव विद्वत्सु (अग्निः) पावकः (हव्यम्) आदातुमर्हम् (शमिता) यज्ञसम्बन्धी (सूदयाति) सूक्ष्मीकृत्य वायौ प्रसारयति ॥२१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे वनस्पते ! यथा शमिताऽग्निर्हव्यं सूदयाति, तथा त्मना देवेषु रराणः सन् हव्यमवसृज ॥२१ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा दिव्येष्वन्तरिक्षादिषु वह्नी राजते, तथा विद्वत्सु स्थितो जिज्ञासुः सुप्रकाशितात्मा भवति ॥२१ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. शुभ्र आकाशात जसा अग्नी शोभून दिसतो तसे विद्वानांमध्ये जिज्ञासू पुरुष शोभून दिसतो.